Mon. Jun 23rd, 2025
नहीं भूलता उसका हाथ

एक सच्ची घटना का संस्मरण

घटना उन दिनों की है जब मैं कक्षा छठीं का छात्र था. हमारा छोटा सा परिवार छत्तीसगढ़ के तत्कालीन दुर्ग जिले के बालोद नाम के एक तहसील मुख्यालय में रहता था. पिताजी चूंकि शासकीय सेवा में थे इसलिए उन्हें शासकीय आवास भी उपलब्ध था. ये शासकीय आवास ठीक उसी तरह की कॉलोनी में था जो भीड़-भाड़ वाले इलाके से दूर नगर के अंतिम छोर पर बसा होता है.

ये कॉलोनी आज भी बालोद में आमापारा कॉलोनी के नाम से जानी जाती है. कॉलोनी का नाम उसके परिवेश के आधार पर ही पड़ा था. असल में वहां आम के बहुत बड़े बड़े बगीचे थे. और जहां आम का बगीचा नहीं था वहां जंगल था. जंगल भी ऐसा कि उसमें हर्रा, बेहड़ा, आंवला, जामुन, सीताफल जिसे की शरीफा भी कहते हैं के ढेर सारे पेड़ थे. ये पेड़ जंगली झाड़ियों से पूरी तरह से घिरे रहते थे. इनके फलों को तोड़ने वाला भी कोई नहीं होता था. कॉलोनी के बच्चे ही सांप-बिच्छू की परवाह किए बिना इन पेड़ों पर लगे फलों तक पहुंच जाते थे. बच्चों को रोकने वाला भी कोई नहीं था.

कॉलोनी के पीछे वाले आम के बगीचे की अंतिम सीमा पर सिंचाई विभाग की बनाई एक बहुत बड़ी नहर थी. उसमें ढेर सारा पानी जाने कहां से आकर जाने कहां जा रहा होता था. पानी का प्रवाह बड़ा ही तेज था. उसमें कुछ भी डालो बड़ी तेजी से बह जाता था. कुलमिलाकर नहर और उसके आसपास का परिदृश्य प्राकृतिक और कृत्रिम सौंदर्य का अनुमप उदाहरण बन जाता था. इस सौंदर्य का रसपान करने के अलावा कॉलोनी वासियों के लिए मनोरंजन का और कोई साधन दूर दूर तक उपलब्ध नहीं था.

कॉलोनी से नहर की दूरी थोड़ी ज्यादा थी इसलिए उससे मेरा परिचय बहुत जल्दी नहीं हुआ था. एक शाम मम्मी और उनकी सहेलियां कॉलोनी के पीछे वाले आम के बगीचे की ओर टहलने निकली थी. जाने किस बहाने मैं अपने दूसरे साथियों को खेलता छोड़कर उस महिला मंडल के साथ हो लिया. वो आपस में कई तरह की बातें कर रही थीं जैसा कि महिलाएं किया करती हैं. मैं उस झुंड के आगे-आगे चल रहा था मानो मैं ही उनका नेतृत्व कर रहा था. ऊछलते-कूदते मैं आगे बढ़ रहा था और रास्ते में जो ढेले या पत्थर मुझे पसंद आ जाते थे उन्हें उठाकर इधर-उधर फेंकता भी जा रहा था. इस तरह से आगे बढ़ते बढ़ते हम उस नहर तक पहुंच गए.

बहते पानी का आकर्षण

बड़ा ही मनोहारी दृश्य था. नहर लबालब भरी हुई थी और पानी उत्तर की ओर से आकर भंवरे बनाता हुआ दक्षिण की ओर तेज़ी से बह रहा था. महिला मंडल के साथ मैं नहर के जिस स्थान पर पहुंचा था वहां से उत्तर की तरफ थोड़ी दूरी पर नहर के बीचों-बीच एक दीवार सी बनी हुई थी. इस दीवार में तीन बड़े-बड़े लोहे के बने शटर टाइप के गेट लगे हुए थे. शायद पानी के वेग को नियंत्रित करने के लिए ही ये गेट बनाए गए होंगे. नहर की दीवार पर बने गेट के साथ एक छोटा पुल जैसा भी बना हुआ था. इस पुल से कार और जीप जैसे वाहन आसानी से निकल सकते थे. वैसे पुल पर बैलगाड़ियों के पहियों के निशान ही मौजूद थे. नहर के उसपार कुछ दूरी पर एक गांव दिखाई दे रहा था. गर्मी की शाम थी तो गांव की कुछ महिलाएं और बच्चे नहर में नहाते हुए दिख रहे थे. बहता हुआ पानी ना जाने क्यों मुझे बड़ा ही आकर्षित करता है.

मैं नहाते हुए लोगों को देखने के लिए ठिठक कर खड़ा हो गया. मुझे हैरानी हुई ये देखकर कि मेरी ही उम्र के कुछ बच्चे नहर की गेट पर एकदम ऊपर तक चढ़ रहे थे और फिर उस तेज़ बहते पानी में छलांग लगा रहे थे. पानी उन्हें कुछ दूर तक बहाकर ले जाता था, लेकिन वो बच्चे उस भंवरदार पानी को चीरते हुए आसानी से किनारे तक पहुंच जा रहे थे. पानी से बाहर निकलते ही वो वापस गेट की तरफ दौड़ पड़ते थे, एक और छलांग के लिए. मैं बड़े ही मनोयोग से उन बच्चों की गतिविधियों को निहार रहा था, एकदम स्तब्ध होकर, शायद मेरा मुंह थोड़ा सा खुला भी रहा होगा. इस वक्त तो मैं मम्मी के साथ था इसलिए उनके सामने ही पानी में उतरने की इच्छा व्यक्त करने की मूर्खता मैने नहीं की. लेकिन उसी वक्त मन में ये दृढ़संकल्प कर लिया कि चाहे जो हो जाए मैं उन बच्चों की तरह नहर के गेट पर चढ़कर पानी में छलांग ज़रूर लगाऊंगा और इनकी तरह ही तैरकर किनारे आ जाउंगा. लौटते वक्त मैने कोई हरकत नहीं की. मेरे मन में उन बच्चों के तैरने की गतिविधि फिल्म की तरह चल रही थी. मैं मन ही मन ये तय कर रहा था कि कैसे और कब यहां आकर छलांग लगाने की चाहत को पूरा किया जाएगा. किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होना चाहिए.

इसके बाद तो लगभग रोज़ ही दोपहर को स्कूल से लौटने के बाद सबकी नज़रे बचाकर मैं नहर की राह पकड़ लिया करता था. गर्मी के दिन थे. दोपहर को तेज़ लू बह रही होती थी. नहर के आसपास तो क्या दूर दूर तक कोई नहीं होता था. मैं वहां पहुंच तो जाता था लेकिन मैं जानता था कि मुझे तैरना नहीं आता है, कहीं डूब ना जाऊं ये सोचकर थोड़ी देर में लौट आता था. इस तरह से करीब चार-पांच दिन बीत चुके थे नहर तक पहुंचकर भी छलांग लगाने की हिम्मत में जुटा नहीं पा रहा था. फिर एक दिन मैने तय कर लिया कि आज मैं खाली हाथ नहीं लौटूंगा. वो दोपहर भी बड़ी तेज धूप वाली थी जब मैं छलांग लगाने के निश्चय के साथ नहर तक पहुंचा था.

मौत की छलांग

आज तो मैं छलांग लगाकर ही रहूंगा. मन ही मन इस निश्चय को मैं और भी पक्का करता जा रहा था. समस्या ये थी कि अगर कपड़े पहनकर पानी में कूदता हूं तो कपड़े तो गीले हो जाएंगे और मैं पकड़ा जाऊंगा. तो कपड़े तो उतारने ही पड़ेंगे. मैंने आसपास नज़र दौड़ाई. मुझे दूर दूर तक किसी की उपस्थिति का आभास नहीं हुआ. आम के बगीचे में पेड़ों की छांव के नीचे घास चरते हुए कुछ मवेशी ही दिखाई पड़ रहे थे. लू की तेज़ और गर्म हवाएं वातावरण में एक अजीब सा शोर उत्पन्न कर रही थीं. इन सबके बीच कुछ अच्छा लग रहा था तो वो था नहर में तेज बहता पानी और गायों के गले में बंधी घंटियों का स्वर. मैंने हिम्मत जुटाई और अपने पवित्र तन से पापी वस्त्रों को एक एककर अलग करता चला गया. नागा संन्यासी बनने के बाद मैं नहर की गेट की ओर बढ़ गया. गेट लोहे का बना था और भीषण गर्मी में तप रहा था. मैं गर्म सलाखों की सीढ़ी पर चढ़ गया और एकदम से सबसे ऊपर पहुंच गया. गेट के ऊपरी हिस्से में खड़े होने का स्थान बहुत ही छोटा था. ऊंचाई होने के कारण डर के मारे मेरे पांव कांपने लगे. जैसे ही मैं नीचे तेज़ बहते पानी को देखता, मेरी कंपकपी छूट जाती थी. पानी की तेज़ धारा लोहे के गेट के नीचे से निकल कर भंवर के आकार में घूमती हुई आगे बढ़ रही थी. मेरी हथेली और पांव के पंजे पसीने से ऐसे भीग गए कि गर्म गेट पर ज्यादा देर तक खड़ा रहना मुश्किल होने लगा. गेट पर चढ़ने से पहले जो आत्मविश्वास मैंने संजोया था वो कपूर की तरह हवा में उड़ चुका था. मैंने पानी में छलांग लगाने का विचार छोड़ दिया और लौटने की सोचने लगा. एक बड़ी समस्या थी गेट के ऊपरी छोर की बनावट कुछ ऐसी थी कि उसपर चढ़ा तो आसानी से जा सकता था, लेकिन उतरा नहीं जा सकता था. मैंने कोशिश की और इसके लिए मुझे गेट के ऊपरी चादर को पकड़ कर नीचे लटकना पड़ा. मेरे पास किसी भी आधार तक नहीं पहुंचे. पैर तो टिके नहीं ऊपर से सीना और पेट लोहे की तेज़ गर्मी से जलने लगे. किसी तरह मैं वापस चढ़ा और ऊकड़ू होकर उस छोटी सी जगह में बैठ गया. मुझे बहुत तेज़ रोना आ रहा था, लेकिन मुझसे रोया भी नहीं जा रहा था. अब तो पानी में कूदना ही एकमात्र चारा था. मैंने बैठे-बैठे ही पानी की तेज़ धारा की ओर झांका. आंखों के सामने मम्मी-पापा के चेहरे नज़र आने लगे. मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. मैंने आंखे बंद कर ली और मन ही मन बजरंग बली को याद करते हुए पानी में छलांग लगा दी.

छपाक का वो दिव्य स्वर

छपाक की एक जोरदार आवाज़ के साथ मेरा गर्म शरीर ठंडा होता चला गया. छलांग लगाते वक्त मैंने भरपूर कोशिश की थी कि जितना हो सके किनारे की तरफ कूद सकूं. लेकिन बैठकर छलांग लगाने के कारण मेरा संतुलन एकदम से बिगड़ गया था और मैं किनारे की जगह नहर के बीचो-बीच पानी में आकर गिरा था. तैरने के लिए हाथ-पैर चलाना मुझे याद रहा कि नहीं कह नहीं सकता. मैंने आंखे खोली तो देखा मैं मटमैले रंग के पानी के अंदर हूं. पैरों के नीचे ज़मीन का अहसास होते ही समझते देर नहीं लगी कि मैं कहां हूं. प्राण बचाने के लिए मैंने स्वयं को ऊपर की ओर धकेला. पानी में भारहीनता का गुण होता है, तो मैं तेजी से ऊपर की ओर आने लगा. ऊपरी सतह तक आते-आते मेरा दम घुटने लगा था. सांस लेने की कोशिश की तो ढेर सारा गंदा पानी मुंह के रास्ते मेरे पेट में चला गया. घुटन और भी बढ़ने लगी थी. मैं सोच रहा था कि अब तक तो मैं काफी दूर तक बहकर चला आया होउंगा. परंतु सतह पर पहुंचकर जो मुझे दिखा वो और भी हैरान कर देने वाला था. मैं पानी की धारा के ठीक विपरित लोहे के गेट की ओर खींचा चला जा रहा था. अचानक मेरा हाथ लोहे के गेट से लगे पत्थर की दीवार से टकराया. मैंने पूरी ताकत से उस दीवार को पकड़ लेने की चेष्टा की, मगर उस विशाल जलस्त्रोत की शक्ति के आगे मेरी एक नहीं चल रही थी. पानी का तेज़ भंवर मुझे अपनी ओर खींच रहा था. आखिरकार मेरा हाथ दीवार से छूट गया. जितना थोड़ा समय मैं सतह पर रह सका मुझे आभास हो रहा था कि मेरे मुंह से खांसी और अजीब तरह की गों-गों की आवाज़ निकल रही थी. अब तक काफी सारा पानी मेरे पेट में जा चुका था. जैसे ही दीवार से मेरा हाथ छूटा, मैं एक बार फिर ठंडे पानी के आगोश में समाने लगा था.

मटमैले पानी में दयालु पंजा

नहर के पानी की ऊपरी सतह की एक मोटी परत गरम थी, लेकिन नीचे का पानी एकदम ठंडा था. मैं जिस ठंडे पानी की तरफ जा रहा था उसका मतलब समझ गया था. मैं वापस नीचे जा रहा था, शायद फिर कभी ना ऊपर आने के लिए. मैं एक बार और संघर्ष का विचार कर ही रहा था तभी एक इंसानी पंजे ने मेरे सिर के बालों को जकड़ लिया. मैं उस पंजे वाले हाथ को पकड़ने के लिए छटपटाने लगा था. मैं जिस गति से नीचे जा रहा था उसी गति से मुझे वापस ऊपर खींचा जा रहा था. सतह पर पहुंचकर जैसे ही मेरा सिर पानी से बाहर आया मेरी कनपटी पर एक जोरदार तमाचा पड़ा. वो मार इतना तगड़ा था कि मैं एकदम से शिथिल हो गया. जब मुझे होश आया तो खुद को आम के पेड़ के छाए में लेटा पाया. किसी तरह से उठकर मैंने अपने कपड़े पहने. वो शख्स मेरे पास ही खड़ा था और अपने कपड़े निचोड़ रहा था. उसने मेरे इस मूर्खता और दुस्साहस पर खूब खरी-खोटी सुनाई. वो एक चरवाहा था. उसकी गायें चर रही थी और वो उनकी रखवाली करने के लिए वहां मौजूद था. मुझे वो दिखाई नहीं दिया था पर उसने शुरू से ही मेरी सारी गतिविधियों पर नज़र रखी थी. जब वो मुझे डांट रहा था तो उसके मुंह से छत्तीसगढ़ी के वो तमाम अपशब्द निकल रहे थे जो मुझे बिल्कुल भी बुरे नहीं लग रहे थे. आज भी जब ये घटना मुझे याद आती है, उस चरवाहे के प्रति मन में श्रद्धा उमड़ पड़ती है.

मलय बनर्जी

लेखक – मलय बनर्जी

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