धर्म क्या है. आध्यात्म क्या है. धर्म और आध्यात्म में क्या अंतर है. और क्यों हम सभी को धर्म की आवश्यकता है. हमारी दुनिया में ऐसा कोई मनुष्य क्यों नहीं है जो किसी भी धर्म से जुड़ा नहीं है. आखिर धर्म हमारी पहचान का एक अभिन्न अंग क्यों बन गया है. और जब ईश्वर एक है तो धर्म अलग अलग क्यों हैं ?
धर्म क्या है इसे समझाने के लिए तमाम धर्म ग्रंथों में कई व्याख्याएं की गई हैं. कहीं कहा गया है कि जो धारण करने योग्य है वो धर्म है, कहीं बताया गया है कि सत्य ही धर्म है, कहीं कर्म को प्रधानता दी गई है तो कहीं उदारता और दया को और कहीं तो दंड को भी धर्म कहा गया है. महात्मा गांधी का तो मानना था कि धर्म कोई पंथ नहीं बल्कि धर्म मानव के भीतर के मूल्य होते हैं. इन मूल्यों में दया, करुणा, प्रेम, त्याग, सत्य, न्याय आदि होते हैं. लेकिन क्या वाकई ऐसा है. क्या इतना कहने भर से धर्म की परिभाषा स्पष्ट हो जाती है? अगर धर्म की यही परिभाषा है तो फिर हम सबका धर्म अलग अलग क्यों है? अगर धर्म धारण करने योग्य को कहा जाता है तो हमें क्या और क्यों धारण करना चाहिए. और इसमें भी भिन्नताएं खत्म क्यों नहीं होती. कुछ लोग धर्म को ईश्वर से भी जोड़ने का प्रयास करते हैं. लेकिन हम सबने तो ईश्वर तक पहुंचने के अलग अलग रास्ते अपनाए हुए हैं. जबकि ऐसे में तो सभी का धर्म एक होना चाहिए क्योंकि सभी मानते हैं कि ईश्वर एक है. फिर धर्म अलग अलग क्यों हैं? तो क्या पूजा पद्धतियों के प्रकार को धर्म कहा जा सकता है. शायद नहीं, हमारी पूजा पद्धतियां भी अलग अलग हैं हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी और ना जाने क्या क्या. और इन्हीं सबके बीच हम भूल जाते हैं कि हमारी अलग अलग पूजा और अराधना की पद्धतियां आखिर उस एक ईश्वर के लिए ही है. अलग-अलग पूजा पद्धतियों और इबादत के तरीकों को हम धर्म समझने की भूल कर बैठते हैं. बहुत से विद्वानों का भी यही मत है कि पूजा पद्धतियों, इबादत के तरीकों और जीवन जीने की शैली ही धारण करने योग्य है इसलिए यही धर्म है. यहां फिर से प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि अगर ऐसा ही है तो फिर मनुष्य ने पूजा पद्धतियों, इबादत या जीवन जीने की इतनी शैलियां कैसे और क्यों विकसित कर ली हैं जिससे कि धरती पर मनुष्यों के इतने सारे धर्म पैदा हो गए हैं?
मूल स्वभाव ही धर्म है
विद्वानों का एक बड़ा तबका ये मानता है कि धर्म का मतलब मनुष्य का स्वाभाविक या मूलभूत गुण होता है. लेकिन इसे मान लेने में भी गड़बड़ी हो जाएगी. हम सब जानते हैं कि मनुष्य में गुणों से ज्यादा अवगुण होते हैं. ऐसे में किसी चोर का स्वभाव अर्थात चोरी करना उसका धर्म कैसे हो सकता है. हमें लगता है कि विद्वानों का ये तबका धर्म के वास्तविक मायने को ढूंढते हुए थोड़ा सा ही चूक गया है. धर्म का शाब्दिक अर्थ वास्तविक गुण ही होना चाहिए जिसे उर्दू में हम तासीर कहते हैं. जैसे कि लोहा, तांबा या कोई भी धातु बिजली का सुचालक या कंडक्टर होता है. ये उस धातु का धर्म है कि उसके एक छोर पर बिजली आने पर वो उस बिजली को दूसरे छोर तक प्रवाहित करे. उस धातु को इससे कोई मतलब नहीं होता कि अंतिम छोर पर 8 साल का बच्चा है या कोई 80 साल का बूढ़ा. गर्मी के मौसम में फलने वाला आम खूब खाया जाता है. लेकिन आम की तासीर गर्म ही है. इसे चाहे फ्रिज में ठंडा कर लो उसके मूल स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आता. पानी का धर्म है आग को बुझाना. फिर चाहे वो खौलता हुआ पानी ही क्यों ना हो. और मूल स्वभाव का ये सिद्धांत वस्तुओं के साथ साथ तमाम प्राणियों पर भी लागू होता है. परिस्थितियों के मुताबिक ये अलग अलग हो सकता है. लेकिन इसे बदला नहीं जा सकता. यही धर्म है. प्रकृति का मूल स्वभाव ही धर्म है. और इसे बदला नहीं जा सकता. इसका पालन करना अनिवार्य है.
धर्म, कर्म और कर्तव्य
कभी-कभी धर्म और कर्तव्य को लेकर संशय की स्थिति उतपन्न हो जाती है. जबकि इसमें बारीक अंतर है. दरअसल धर्म के पालन में किया जाने वाला कर्म कर्तव्य बन जाता है. प्रकृति ने हमें ठंड का मौसम दिया है. ठंड से हमें स्वयं को बचाना हमारा धर्म है. इसी प्रकृति ने हमें कपास का पौधा भी दिया है. ठंड से स्वंय को बचाने के लिए हम कपास की रजाई बनाते हैं. ये कर्म हैं. और इस कपास की रजाई का इस्तेमाल हम और हमारा पूरा परिवार कर सके ये कर्तव्य है. इस तरह हम देखते हैं कि धर्म के पालन में किया गया कर्म कर्तव्य बन जाता है. आप कर्म और कर्तव्य से विमुख हो सकते हो लेकिन धर्म से कोई विमुख नहीं हो सकता. और यही वजह है कि सनातन परंपरा में महिलाओं के रजस्वला होने को धर्म की संज्ञा दी गई है. महिला के मासिक धर्म के दौरान उसकी देखभाल करना और उसके इस धर्म के पालन में मदद करने का कर्म हमारा कर्तव्य है. इस तरह से हम कह सकते हैं कि प्रकृति ने हमें जो जैसा दिया है उसके साथ समन्वय स्थापित करना ही धर्म है.
प्रकृति से तालमेल ही धर्म है
यहां पर एक गफलत पैदा हो जाती है. हम देखते हैं कि पूरी प्रकृति में मनुष्य को छोड़कर सभी जड़ और चेतन को स्वाभाविक प्राकृतिक गुणों से परिपूर्ण किया गया है. एकमात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसे प्राकृतिक रूप से कुछ भी नहीं मिला है. प्रकृति के साथ तारतम्य बिठाने के लिए भी उसे संघर्ष करना पड़ता है. तो फिर मनुष्य का धर्म क्या है. इस पृथ्वी पर प्रकृति के कई रूप और रंग मौजूद हैं. भारत का सियाचिन ग्लेशियर हो या साइबेरिया और मंगोलिया जैसा इलाका जहां पूरे साल बर्फ और ठंड अपनी चरम पर ही रहता है. थार से लेकर सहारा मरुस्थल. भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार प्रकृति बदलती रहती है. और पृथ्वी पर इस बदलते प्राकृतिक परिवेश के साथ मनुष्य को भी तारतम्य बिठाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. यही मुख्य वजह है कि हमें पृथ्वी पर मनुष्य के अलग अलग धर्म या संप्रदाय दिखाई देते हैं. रेगिस्तानी या बंजर इलाकों के लोग ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए वहां के प्राकृतिक हालातों का और संसाधनों का सहारा लेते हैं तो दूसरी तरफ नदियों से भरपूर हरियाली वाले इलाकों के लोग वहां उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों को धर्म के रूप में अपनाते हैं. प्रकृति के साथ तारतम्य बिठाने के लिए जो सही नियम बनाए जाते हैं उनका पालन करना ही धर्म कहलाता है. इसी के आधार पर जीवन शैली और खानपान विकसित होती है. बंजर इलाकों के लोगों के लिए भोजन और जीवन का मुख्य स्त्रोत मवेशी हो सकते हैं. तो हरियाली वाले प्रदेशों के लिए शाकाहार जीवन का मुख्य स्त्रोत बन जाता है. प्रकृति के सिद्धांतों पर बने और जीवन यापन पर आधारित धर्म को कभी बदला नहीं जा सकता और बदलना भी नहीं चाहिए. अन्यथा वो अधर्म कहलाएगा. इस तरह से हम देखते हैं कि प्रकृति की व्यवस्थाओं के साथ कैसे तारतम्य स्थापित किया जाए यही प्रक्रिया धर्म कहलाती है. दूसरे और आसान शब्दों में कहें तो हमारा मूल स्वभाव क्या है इसकी खोज या तलाश ही धर्म है.
धर्म से ऊपर उठना आध्यात्म है
लेकिन मनुष्य के जीवन का उद्देश्य केवल धर्म का पालन करते रहना ही नहीं है. इसी रास्ते पर चलते हुए उसे धर्म से ऊपर उठना होता है. इस ऊपर उठने की प्रक्रिया को ही आध्यात्म कहते हैं. धर्म और आध्यात्म में यही फर्क है यही अंतर है. कहने का मतलब ये है कि प्रकृति के साथ तारतम्य बिठाकर चलना धर्म है, प्रकृति के साथ समन्वय बिठाने के लिए तय नियमों का पालन करना धर्म है. और फिर धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता स्वंय की प्रवृत्ति को पहचानते हुए प्रकृति के नियमों से ऊपर उठ जाने का प्रयास करना आध्यात्म है. आध्यात्म के रास्ते पर आगे बढ़ जाने से फिर प्रकृति के नियम भी आड़े नहीं आते. हिमालय के बर्फ में भी खुले बदन रहा जा सकता है. रेगिस्तान की गर्म रेत पैरों में जलन पैदा नहीं करती. खानपान हो, या सामाजिक जीवन यापन के लिए बनाए गए सारे नियम और तर्क पीछे छूट जाते हैं. प्रकृति से एकाकार हो चुकी आत्मा, परमात्मा की रोशनी में नहा जाती है. प्रकृति के पांच तत्व उंगलियों के इशारे पर नृत्य करने लगते हैं. इस आध्यात्म को पा लेने के लिए ही धर्म का रास्ता अनिवार्य होता है. यही धर्म और आध्यात्म में अंतर है. औऱ धर्म के पालन का उद्देश्य भी यही है.