Mon. Jun 23rd, 2025
नारी हिंसा और समाज की दोहरी मानसिकता

हाल ही में हमने कई ऐसे हृदयविदारक प्रकरण देखे हैं जहां पत्नियों द्वारा अपने पतियों की हत्या की घटनाएं सामने आई हैं. ये घटनाएं जितनी चौंकाने वाली हैं, उतनी ही दुःखद और विचारणीय भी हैं. जब कोई ऐसा व्यक्ति जिसे जीवन भर साथ निभाने की शपथ ली हो, वही आपकी जान ले, तो ये केवल व्यक्ति विशेष का नहीं, सम्पूर्ण सामाजिक ताने-बाने का पतन दर्शाता है.

जब भी ऐसी कोई घटना होती है, समाज में कई तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं. कुछ तार्किक, तो कुछ अत्यंत पक्षपाती. कुछ लोग तुरंत इसका दोष नारीवाद, स्त्री-शिक्षा और स्वतंत्रता को देने लगते हैं. वे मानते हैं कि जब महिलाओं को पढ़ाया-लिखाया और स्वतंत्र बनाया जाता है, तो वे मर्यादा भूल जाती हैं, और परिणामस्वरूप विवाहेतर संबंधों में लिप्त होकर पतियों की हत्या तक कर बैठती हैं.

आत्ममंथन की आवश्यकता

कुछ लोग यह सुझाव देते हैं कि महिलाओं की जल्दी शादी कर दी जानी चाहिए ताकि वे अपने विचार न बना सकें और समाज की समझ न विकसित कर सकें. उनका यह मानना है कि एक ‘अनगढ़’ स्त्री को ढालना आसान होता है. वहीं कुछ लोग सोशल मीडिया, पश्चिमी संस्कृति, नग्नता और खुले विचारों को भी इस प्रकार की घटनाओं के लिए दोषी ठहराते हैं.

किन्तु, यही वह समय है जब हमें रुककर आत्ममंथन करना चाहिए. ऐसा क्या है जो किसी को यह साहस देता है कि वह अपराध करे और सजा से बच निकले? विवाहेतर संबंध और बेवफाई इतनी सामान्य क्यों हो गई है?

क्या इसका उत्तर हमारे पितृसत्तात्मक ढांचे में नहीं छिपा है? सदियों से पुरुषों के लिए यह सामान्य बना दिया गया है कि वे संबंधों में धोखा दें, हिंसा करें, बलात्कारी बनें—फिर भी वे समाज में ‘सम्मानित’ बने रहें. हमने पुरुषों के क्रोध को स्वाभाविक माना, और महिलाओं से आशा की कि वे सब सहें, माफ करें, और चुप रहें.

दोहरा मापदंड क्यों ?

हमने देखा है कि किस तरह पुरुषों ने अपनी पत्नियों को जिंदा जला दिया, अपनी गर्भवती पत्नी को गुस्से में मार डाला, दहेज के लिए बहुओं की हत्या कर दी, और marital rape जैसे अमानवीय कृत्य किए. बेटियों, रिश्तेदारों, यहाँ तक कि नवजातों के साथ बलात्कार कर उन्हें मारने वाले भी पुरुष ही रहे हैं. और फिर भी, इन अपराधों पर समाज खामोश रहा है.

तो जब कुछ महिलाएं प्रतिरोध में हिंसा का मार्ग चुनती हैं, समाज चिल्ला उठता है “पुरुष अब डरने लगे हैं! विवाह से घबरा रहे हैं. महिलाओं पर अब विश्वास नहीं रहा. पर यह डर वह डर है जो महिलाओं ने सदियों से सहा है. फिर भी जब कोई स्त्री विवाह से इनकार करती है, हम उसे दोष देते हैं—उसके विचारों को, उसकी शिक्षा को, उसके चरित्र को.

यह वही दोहरा मापदंड है जिसे हमें आज चुनौती देनी है. हमें यह समझना होगा कि किसी एक स्त्री द्वारा किया गया अपराध सम्पूर्ण स्त्री जाति को कलंकित नहीं करता, ठीक वैसे ही जैसे हज़ारों पुरुषों द्वारा किए गए अपराधों से सम्पूर्ण पुरुष जाति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

पूर्वाग्रह खत्म होना चाहिए

यह आवश्यक है कि हम हिंसा को लिंग के चश्मे से देखना बंद करें. हर अपराध का निष्पक्ष और कठोर न्याय हो—चाहे वह पुरुष करे या स्त्री. साथ ही, हमें उन सामाजिक संरचनाओं को भी बदलना होगा जो किसी एक लिंग को विशेषाधिकार देते हैं और दूसरे को सिर्फ सहने के लिए मजबूर करते हैं.

निष्कर्षतः, यदि हम सच में एक न्यायसंगत और समानता-आधारित समाज बनाना चाहते हैं, तो हमें इन कथित नैतिकताओं, नारीवाद पर दोषारोपण और स्त्री-शिक्षा को अपराध का कारण बताने जैसी बातों को त्यागना होगा. हमें सुनना होगा—बिना पूर्वग्रह के, देखना होगा—बिना संदेह के, और न्याय करना होगा—बिना भेदभाव के. तभी हम एक ऐसा समाज बना पाएंगे जहां न कोई पीड़ित चुप हो, न कोई दोषी आज़ाद घूमे.

लेखक – पुष्पेश राय

By Admin

Related Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *