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ईश्वर और भगवान एक नहीं हैं

हिंदू हो, तो हिंदुत्व को जानो

भ्रम और अज्ञानता से निकलना आवश्यक!

हम सभी को बचपन से ये सिखाया पढ़ाया गया है कि गाय दूध देती है. लेकिन क्या वाकई गाय दूध देती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपने स्वार्थ के लिए बछड़े का हक मारकर गाय का दूध निकालते हैं, और आने वाली पीढ़ी को ये समझा जाते हैं कि गाय दूध देती है. पीढ़ी दर पीढ़ी ये समझते रहने से पक्का भरोसा हो जाता है कि वाकई गाय दूध देती है और हमें दूध निकालने में ज़रा भी गलत नहीं लगता. जबकि गाय का दूध देना और गाय का दूध निकालना दोनों में फर्क होता है. ठीक इसी तरह ईश्वर और भगवान शब्दों को लेकर भी हम बचपन से मिसगाइड किए जाते रहे हैं. दरअसल हमें जो बताया या पढ़ाया जाता है उसके बारे में हम कभी विचार ही नहीं करते कि इसका कोई दूसरा आयाम भी हो सकता है. एक और उदाहरण देकर आपको समझाते हैं. जब आप छोटे बच्चे होते हैं, अभी बोलना भी नहीं सीखें हैं, चीजें समझने की कोशिश कर रहे हैं. इस अवस्था में जब आप माता-पिता या किसी परिजन की गोद में लदकर बाज़ार जाते हैं तो कौतूहल से सारी चीजों को देखते हैं. जब आपको गोद में लिया हुआ शख्स सब्जी वाले से कहता है भैया एक किलो आलू देना. तो आप कौतूहल से कहने वाले के ओठों की तरफ देखते हैं. और ध्यान से सुनते हैं कि क्या कहा जा रहा है. आपकी समझ में आ जाता है कि आलू कहा जा रहा है. अब आप सब्जी वाले की तरफ देखते हैं. वो सब्जी वाला अपनी तराजू में थोड़ा लंबा, थोड़ा गोल और मटमैला सा दिखने वाला सामान डालकर तौल रहा होता है. आप समझ जाते हैं कि ये आलू है. अमूमन बच्चों का आलू से पहला परिचय ऐसे ही होता है. (जिनका आलू से परिचय नहीं हो पाता है वो बड़े होकर आलू से सोना भी बनाते हैं और आलू को पेड़ पर फलने वाला भी बता देते हैं) खैर, हम जान जाते हैं कि ये आलू है. हमें कभी अलग से नहीं सिखाया जाता है कि आलू क्या है. और हमारे मन में कभी सवाल भी पैदा नहीं होता कि आलू को आलू ही क्यों कहते हैं. गाय दूध देती है वाले मामले में हम मिसगाइड किए गए हैं जबकि आलू वाले मामले में कह सकते हैं कि हमारी क्यूरोसिटी ही नहीं जागी है. दोनों ही मामले में हम परंपरा का निर्वाह करते चले जाते हैं. मन में सवाल पैदा नहीं होने के कारण ही हम भ्रम की स्थिति में रहते हैं और हमें पता ही नहीं होता कि सच्चाई क्या है. भगवान और ईश्वर में अंतर को लेकर भी हमारी हालत कुछ ऐसी ही है.

भग् धातु से बना है भगवान

दोस्तों भगवान है या नहीं. भगवान ने हमें बनाया तो भगवान को किसने बनाया. विज्ञान नहीं मानता ईश्वर का अस्तित्व. ऐसे ना जाने कितने शीर्षक हैं जिनके माध्यम से लोग इस विषय पर चर्चा करने के लिए कमर कसे हुए दिखाई पड़ते हैं. और ना जाने कैसे कैसे नतीजों पर पहुंच जाते हैं. हमें लगता है कि सबसे पहले हमें ये तो पता होना ही चाहिए कि आखिर हम बात किसकी कर रहे हैं. ईश्वर की या फिर भगवान की. दोस्तों सनातन परंपरा में भगवान के अस्तित्व को माना गया है. भगवान शब्द संस्कृत के भग् धातु से बना है. और ये एक गुणवाचक शब्द है. भग के 6 अर्थ होते हैं. ऐश्वर्य, वीर्य, स्मृति, यश, ज्ञान और सौम्यता. जिसके पास ये 6 गुण हैं वो भगवान है. जिस तरह किसी के पास बल हो तो वो बलवान कहलाता है, किसी के पास धन हो तो वो धनवान कहलाता है. ठीक उसी तरह भग् धातु से बने 6 गुणों का जिसके व्यक्तित्व में समावेश हो वो भगवान कहलाता है. “भगवान” शब्द “भग” धातु और “वान” प्रत्यय से मिलकर बना है. “वान” का अर्थ है “युक्त” या “संपन्न”. भग धातु से बने 6 गुण किसी एक मनुष्य के पास होना असंभव भी नहीं है. आचार्य रजनीश जिन्हें हम ओशो के नाम से भी जानते हैं उन्होंने ये महसूस किया था कि उनके पास ये 6 गुण आ गए हैं. उन्होंने स्वयं को भगवान कहा था. स्वयं को भगवान कहने से उनकी बड़ी आलोचना हुई थी. ये आलोचना करने वाले कोई और नहीं हम और आप जैसे अज्ञानी ही थे.

लिंग भेद से ऊपर है ईश्वर

सबसे खास बात ये है कि भगवान शब्द पुर्लिंग है और इसका स्त्री लिंग भगवती भी मौजूद है. ये दोनों तथ्य भी भगवान के ईश्वर ना होने की पुष्टि करते हैं. क्योंकि ईश्वर तो लिंगभेद से ऊपर है. विद्धानों के अनुसार ईश्वर एक शक्ति है. उस शक्ति को आत्मसात कर लेने वाला, उस शक्ति की व्यवस्थाओं के साथ तारतम्य स्थापित कर लेने वाला कोई भी भगवान कहलाने के योग्य हो जाता है. ईश्वर जन्म और मृत्यु से मुक्त है. उसका कोई आकार ज्ञात नहीं है. लेकिन भगवान के साथ ऐसा नहीं होता. गुणों को समाहित कर सकने वाला निराकार नहीं हो सकता. इसलिए जब भी भगवान या भगवती की बात होती है तो एक आकार विशेष का अक्स जहन में उभरना लाज़मी है.

जिसे जानते हो वो ईश्वर नहीं है

आप जितने भी भगवानों को जानते हैं उनके जीवन की घटनाओं, उनके जन्म और पुण्यतिथि के मुताबिक उत्सवों की परंपरा मनाते हैं. लेकिन ईश्वर अनंत और असीम है. उसके बारे में हमें कुछ भी नहीं पता. इसलिए ईश्वर को लेकर उत्सव की जो भी तिथि निर्धारित की गई है उसे भी हमनें कहानियों में पिरोकर भगवानों के साथ जोड़ दिया है. हिंदू परम्परा में श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि भगवान कहलाते है. जिन परम्परा से अष्ट कर्मों को क्षय करके अनंत में खोने वाले सभी तीर्थंकर, केवली आदि भगवान कहलाते हैं. बौद्ध परम्परा से गौतम बुद्ध आदि भगवान कहलाते हैं. ईसाई परम्परा से जीसस आदि भगवान कहलाते हैं तो सिख परम्परा से नानक देव आदि भगवान कहलाते हैं. लेकिन इनमें से कोई भी ईश्वर नहीं है. बल्कि ये सभी ईश्वरीय शक्ति की अभिव्यक्ति को उजागर करने के प्रतीक मात्र हैं.

संप्रदायों से ऊपर है ईश्वर

सरल शब्दों में कहें तो भगवान केवल सद्गुणों के समावेश को कह सकते हैं. और उन सद्गुणों का निर्णय भी हमारे चुनाव पर निर्भर करता है. हमारे भगवान असुरों या राक्षसों का वध कर सकते हैं. उनसे हमारी रक्षा करते हैं. लेकिन ईश्वर उस शक्ति का नाम है जिसने हमें बनाया और हमारा पालन किया उसी तरह से असुर या राक्षसों को भी ईश्वर ने ही बनाया और उनका पालन किया है. अगर आप ये कहते हैं कि असुरों या रक्षसों को ईश्वर ने नहीं बनाया है तो आप अपने ही ईश्वर के समानांतर एक और शक्ति को मान्यता दे रहे होते हैं. ईश्वरीय शक्ति का कोई संप्रदाय नहीं होता. जबकि हर भगवान के साथ और उसके पश्चात एक नई परंपरा और एक नए संप्रदाय का जन्म होता है. यहां तक कि निराकार ब्रह्म को मानने का दावा करने वाले भी परंपराओं के पालन को लेकर फिरकों में विभाजित हो जाते हैं. और आपस में ही लड़ते झगड़ते दिखाई पड़ते हैं.

ईश्वर, भगवान नहीं हो सकता

वहीं बौद्ध परंपरा के विद्वानों का दावा है कि भगवान शब्द का पहला इस्तेमाल उन्होंने भगवान बुद्ध के लिए किया था. इसका तात्पर्य मनुष्य को देवताओं से श्रेष्ठ दिखाना था. क्योंकि मनुष्य कर्मयोगी है वो त्याग भी कर सकता है इसलिए वो भगवान है, जबकि देवता विलासी होते हैं. बौद्ध धर्म ने ही भगवान नाम का टाइटिल अपने श्रेष्ठ और गुणवान व्यक्ति भगवान बुद्ध के लिए इस्तेमाल किया. बौद्ध विद्वानों का ये भी दावा है कि उनकी देखा देखी हिंदुओं ने अपने धर्मग्रंथों में देवताओं के लिए भगवान शब्द का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. बौद्ध परंपरा के मुताबिक जो गुणवान व्यक्ति समस्त दुनिया के लोगों को दुख से मुक्ति दिलाए, उनके उद्धार के लिए संकल्प करे वो भगवान होता है. जबकि ईश्वर का सुख–दुख से कोई लेना देना नहीं होता. इसलिए ईश्वर कभी भगवान नहीं हो सकता.

ईश्वर प्राप्ति के लिए भगवान आवश्यक

ईश्वर और भगवान शब्दों का अर्थ समझने का मतलब ये कतई नहीं होता है कि हम ना-ना प्रकार के भगवानों के अस्तित्व को या उसकी महत्ता को नकार दें या चुनौती दे डालें. ऐसा करने वालों को हमेशा ही मुंह की खानी पड़ी है. यहां तक कि आदिगुरु शंकराचार्य भी अद्वैत वाद के रास्ते पर चलते चलते कब द्वैतवाद को अपना बैठे उन्हें भी पता नहीं चला. उनके द्वारा स्थापित सिद्धपीठों में श्रीयंत्र की महत्ता आसानी से देखी जा सकती है. शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म दोनों का दर्शन होता है. निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है और सगुण ब्रह्म उनका साकार ईश्वर है. उन्होंने निराकार और साकार दोनों का समर्थन करके निराकार तक पहुंचने के लिए साकार की उपासना को आवश्यक सीढ़ी भी माना. अर्थात ईश्वर तक पहुंचने के लिए भगवान की अराधना कतई गलत नहीं है, भले ही दोनों में कितना ही अंतर क्यों ना हो.

मलय बनर्जी

लेखक – मलय बनर्जी

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