Mon. Jun 23rd, 2025
कंघी चुराकर होती है शादी

महानगरों में मखमली पर्दों से ढकी दीवारों के पीछे, एयरकंडिशन में बैठकर समाज सुधार की बातें करने वाले लोग ध्यान दें. जिन्हें आप वनवासी या जंगली कहते हैं वो आपको समाजिक परंपरा और महिला अधिकार क्या होता है ये सीखा सकते हैं. आदिवासियों में ऐसी बहुत सी रीति रिवाज़ और परंपराएं हैं जिनके बारे में हम कथित आधुनिक लोग सोच भी नहीं सकते हैं. ऐसी ही एक परंपरा का नाम है घोटुल. छत्तीसगढ़ के बस्तर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, कांकेर, राजनांदगांव और महाराष्ट्र के चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिलों के घने जंगलों में मुड़िया और मारिया जनजाति के वनवासी निवास करते हैं. ये मुख्य रूप से गोंड जनजाति का ही हिस्सा हैं. ये प्रकृति के साथ रहकर प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं. इन्हीं प्राकृतिक नियमों के तहत ये लोग घोटुल प्रथा का भी पालन करते हैं.

क्या होता है घोटुल

क्या है घोटुल

घोटुल गांव के बाहर बने एक बड़े कुटीर को कहते हैं. ये कुटीर गांव के बच्चों या किशोरों के लिए होता है. वो इसमें सामूहिक रूप से रहते हैं. जिसे हम शहरों में क्लब कहते हैं उसी तरह घोटुल जनजातीय गांवों का एक सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र होता है. ये परम्परा इन जनजातियों के किशोरों को शिक्षा देने के उद्देश्य से शुरू किया गया अनूठा अभियान है. इसमें दिन में बच्चे शिक्षा से लेकर घर–गृहस्थी तक के पाठ पढ़ते हैं तो शाम के समय मनोरंजन और रात के समय आनन्द लिया जाता है. मुरिया बच्‍चे जैसे ही 10 साल के होते है घोटुल के सदस्‍य बन जाते हैं. घोटुल में शामिल लड़कियों को उनकी स्थानीय बोली में ‘मोतियारी’ और लड़कों को ‘चेलिक’ कहा जाता हैं. लड़कियों के प्रमुख को ‘बेलोसा’ और लड़कों के प्रमुख को ‘सरदार’ पुकारते हैं. घोटुल में व्यस्कों की भूमिका केवल सलाहकार की होती है, जो बच्‍चों को सफाई, अनुशासन और सामुदायिक सेवा के महत्व से परिचित करवाते हैं. घोटुल में किशोर-किशोरियों के अलावा केवल उनके शिक्षक ही प्रवेश कर सकते हैं. गांव के दूसरे लोग या बच्चों के माता-पिता वहां नहीं जा सकते.

शाम होते ही गूंज उठते हैं नगाड़े

जिन गांवों में घोटुल होता है वहां की खासियत ही ये होती है कि गोधुली बेला के बाद वहां नगाड़ों पर थाप पड़ने शुरू हो जाते हैं. ये नगाड़े की थाप दूर तक सुनाई देती है. नगाड़ा बजाने का मतलब ये होता है कि मोतियारियों और चेलिकों के घोटुल में जाकर मनोरंजन करने का समय हो गया है. नगाड़े बजते ही घोटुल के सदस्य युवक और युवतियां सज संवर कर वहां पहुंचने लगते हैं. अब शुरू होता है नाचने-गाने का सिलसिला जो देर रात तक चलता है. इसमें युवक और युवतियां एक दूसरे से मेल-मुलाकात करते हैं. छेड़-छाड़ और चुहल मस्ती भी होती है. आदिवासी पारंपरिक गानों की अंताक्षरी भी खेली जाती है. इस दौरान तंबाकू और ताड़ी सबके लिए उपलब्ध रहता है.

घोटुल का मकसद

घोटुल का मुख्य उद्देश्य है युवक और युवतियों को समाज से जोड़े रखना. आदिवासी परंपराओं की जानकारी देना और मनोरंजन के साथ साथ उन्हें सामाजिक शिक्षा देना भी इसका मकसद है. घोटुल में सदस्य बनने वाले युवक-युवतियों में ये देखा गया है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहरों में आने के बाद भी वो अपनी परंपराओं को नहीं भूलते और सामाजिक जिम्मेदारियों का उन्हें पूरा अहसास रहता है. घोटुल के सदस्यों के लिए ये अनिवार्य होता है कि वो अपने समाज में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों में शामिल होते हैं. कुछ दिन बाद तो वो खुद लोगों को इन संस्कारों का महत्व बताकर विधि-विधानों को पूरा करने में अगुआई करते हैं.

अलग अलग हैं घोटुल की परंपराएं

अलग अलग आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाली मुड़िया और मारिया जनजाति के लोगों में घोटुल को लेकर अलग अलग परंपराएं भी देखी जाती है. कुछ स्थानों पर होता है कि जवान ल़ड़के-लड़कियां घोटुल में ही सोते हैं. कुछ स्थानों पर वो दिन भर घोटुल में रहते हैं और रात को मनोरंजन का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद अपने अपने घर चले जाते हैं. आदिवासी समाज बिखर ना जाए या विलुप्त ना हो जाए इसका भी कई स्थानों पर ध्यान रखा जाता है. ऐसे स्थानों में ये परंपरा बनाई गई है कि ये युवक और युवतियां अपना जीवन साथी घोटुल से ही चुनते हैं. बाद में रीति रिवाज़ के साथ उनकी शादी कराई जाती है. कई स्थानों पर घोटुल एक बड़ा कुटीर होता है जिसमें एक बड़ा आंगन होता है, बाग बगीचे होते हैं. लड़के-लड़कियों के लिए अलग अलग तरह के कमरे बने होते हैं. इन घोटुलों की दीवारों पर आदिवासी संस्कृति से जुड़ी कला कृतियों और चित्रकारियों को उकेरा जाता है. वहीं कई स्थानों पर घोटुल के नाम पर गाव से हटकर एक बड़े मैदान में बड़ा सा मंडप बनाया हुआ होता है. ये मंडप चारों तरफ से खुला ही रहता है. इसका इस्तेमाल पढ़ाई और रात के मनोरंजन के कार्यक्रम के लिए होता है.

कंघी बनाने और चुराने की परंपरा

कंघी चोरी से होती है शादी

घोटुल से जुड़कर रहते हुए जब कोई किशोर युवा हो जाता है और शादी करने का मन बनाने लगता है तो इसके लिए भी उसे एक नियम का पालन करना होता है. उस युवक को बांस की एक कंघी बनानी होती है. ये कंघी सिर्फ कामचलाऊ नहीं होती बल्कि उस युवक को अपनी हस्तकला का पूरा जौहर उस बांस की कंघी को बनाने में दिखाना होता है. उसके बनाई कंघी किसी एक लड़की को या एक से ज्यादा लड़कियों को पसंद आ सकती है. ऐसे में जिन लड़कियों को वो युवक पसंद होता है और उसकी बनाई कंघी उन्हें अच्छी लगती है तो उनमें से किसी एक को वो कंघी चुरानी होती है. इसे लेकर लड़कियों में भी एक गुप्त कॉम्पिटिशन चलता है. फिर जो लड़की उस लड़के का कंघी चुराने में सफल हो जाती है उसकी शादी उस लड़के से करा दी जाती है. इससे पहले कंघी चुराने वाली लड़की अपना श्रृंगार करती है और चुराई हुई कंघी को बालों में लगाकर सार्वजनिक प्रदर्शन करती है. जब सबको पता चल जाता है कि ये कंघी फंला युवक ने बनाई है तो फिर दोनों की शादी की तैयारी शुरू हो जाती है.

युवती करती है अंतिम फैसला

शादी से पहले इस जोड़े को घोटुल में कुछ दिन तक साथ रहने और अंतिम निर्णय तक पहुंचने का मौका दिया जाता है. दोनों तो घोटुल का एक कमरा अलॉट किया जाता है. दोनों मिलकर इस झोपड़ीनुमा कमरे को सजाते-संवारते हैं. वैवाहिक जीवन से जुड़ी अलग अलग शिक्षाएं प्राप्त करते हैं. एक दूसरे की भावनाओं को समझते हैं और यहां तक कि उन्हें ये आजमाने की भी पूरी छूट होती है कि वो एक दूसरे को शारीरिक रूप से संतुष्ट कर पा रहे हैं या नहीं. इस आदिवासी समाज की बस यही वो परंपरा है जिसके कारण घोटुल को लेकर आधुनिक शहरी समाज में अलग अलग बातें और धारणाएं प्रचारित की गई हैं. जबकि घोटुल में अंतिम निर्णय का मौका केवल उन जोड़ों को ही मिलता है जो कंघी चुराने की प्रक्रिया के बाद शादी के लिए सार्वजनिक हो चुके होते हैं. ऐसा बहुत ही कम होता है कि इस अंतिम निर्णय में जोड़ा एक दूसरे को नकार दे. लेकिन ऐसा होने पर समाज या गांव इसे पूरी तरह से स्वीकार करता है. इसे लेकर ना तो किसी को कुछ कहा जाता है और ना किसी को ताना दिया जाता है.

देवता ने शुरू की थी परंपरा

घोटुल की शुरुआत के बारे में इस समुदाय के आदिवासी मानते हैं कि उनके सर्वोच्च देवता लिंगो देव ने ही पहली बार घोटुल का निर्माण किया था और इस परंपरा को शुरू किया था. लिंगो देव को मुड़िया और मारिया समुदाय के आदिवासी अपनी संस्कृति का संस्थापक मानते हैं. इस समुदाय के आदिवासियों को लेकर एक और मान्यता प्रचलित है, लेकिन इसके प्रमाणित होने को लेकर कोई साक्ष्य नहीं मिलते है. कहते हैं कि मुगल और ब्रिटिश काल के मध्य सन 1750 में इस समुदाय के आदिवासी बस्तर छोड़कर बिहार के नालंदा में जाकर बस गए थे. बिहार में इन आदिवासियों को ‘घमाइला’ उपजाति के नाम से जाना जाता है. कहा तो ये भी जाता है कि ये आदिवासी युद्ध कला में बड़े माहिर होते थे और इन लोगों ने पानीपत के युद्ध में मराठों का साथ दिया था. लेकिन इन बातों का तथ्यात्मक प्रमाण नहीं मिलता है.

घोटुल पर नक्सली ग्रहण

नक्सली ग्रहण

छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के सघन वनांचलों में घोटुल आज भी अपने बदले हुए रूप में देखा जा सकता है. किन्तु बस्तर में बाहरी दुनिया के कदम पड़ने से घोटुल का असली चेहरा बिगड़ा रहा है. बाहरी लोगों के यहां आने और फोटो खींचने, वीडियो फिल्म बनाने के कारण ही ये परम्परा बन्द होने की कगार पर है. ये परम्परा माओवादियों यानि कि नक्सलियों को भी पसन्द नहीं है. इसके लिए उन्होंने बकायदा कई जगह ‘आदेश’ जारी कर इस पर प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश भी की है. उनकी नजर में ये एक तरह का स्वयंवर है और जवान लड़के-लड़कियों को इतनी आजादी देना ठीक नहीं है. माओवादियों का ये भी मानना है कि कई जगह पर इस परम्परा का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है और घोटुल की आड़ में लड़कियों का शारीरिक शोषण हो रहा है. कई इलाकों में ये परम्परा पूरी तरह बंद तो नहीं हुई है, लेकिन कम जरूर हो रही है.

घोटुल पर प्रशासनिक प्रयास

सरकारी प्रयास

छत्तीसगढ़ के नारायणपुर ज़िले में प्रशासन की ओर से एक बड़ी पहल की गई है. 4 मई 2025 को यहां के चेंदरू पार्क में पारंपरिक घोटुल स्थल का शुभारंभ किया गया. बस्तर के सांसद महेश कश्यप और छत्तीसगढ़ के वन मंत्री केदार कश्यप भी इस मौके पर मौजूद थे. घोटूल का निर्माण जिला प्रशासन और वन विभाग की तरफ से किया गया है. पद्मश्री पांडीराम मंडावी के सहयोग से इसे बनाया गया है. इसे पूरी तरह इको फ्रेंडली सामग्री लकड़ी, मिट्टी और बांस से तैयार किया गया है. खंभों पर की गई बारीक नक्काशी खुद पद्मश्री मंडावी ने की है, जिससे इसकी और भव्यता दिखती है. इस घोटुल परिसर में सगा कुर्मा (बैठक कक्ष), उदना कुर्मा (विश्राम कक्ष), बिडार कुर्मा (सामग्री कक्ष) और लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग कक्ष बनाए गए हैं. प्रशासन का ये प्रयास निश्चित रूप से पर्यटकों के लिए ही है. लेकिन इसका उद्देश्य यही होना चाहिए कि पर्यटक इस स्थान को देखकर गांवों में संचालित असली घोटुल की परिकल्पना को साकार कल लें. ना कि असली घोटुलों को डिस्टर्ब करने के लिए गांवों में पहुंच जाएं.

मलय बनर्जी

लेखक – मलय बनर्जी

By Admin

Related Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *