भारत में तेजी से बढ़ते यात्री विमान दुर्घटनाओं को लेकर इन दिनों काफी संवेदनशीलता बरती जा रही है. जो यात्री विमान दुर्घटना का शिकार हो रहे हैं या तकनीकी खराबी के कारण उड़ान नहीं भर पा रहे हैं उन्हें बनाने वाली कंपनियां चुप्पी साधे हुए हैं. क्या आप जानते हैं कि दुनिया में बड़े यात्री विमान बनाने के उद्योग में केवल दो कंपनियों ने अपनी पैठ जमाई हुई है. एक कंपनी का नाम है एअरबस और दूसरी कंपनी का नाम हो बोइंग. एअरबस पर ब्रिटेन, फ्रांस, और जर्मनी का आधिपत्य है. और बोइंग अमेरिका की कंपनी है. इन दोनों कंपनियों ने मिलकर भारत समेत दुनिया के तमाम देशों के साथ एक षडयंत्र कर रखा है. इन कंपनियों ने ऐसे अंतर्राष्ट्रीय मानक बनाए हुए हैं जिससे कि कोई दूसरा देश यात्री विमान बनाने की पहल भी नहीं कर पाता है. जो देश इनकी हिदायतों को दरकिनार कर यात्री विमान बनाता भी है उनके बनाए विमान को अंतर्राष्ट्रीय उड़ान से रोक दिया जाता है. सवाल ये है कि आखिर भारत यात्री विमान बनाने के उद्योग में हाथ क्यों नहीं आज़मा रहा है. जबकि विमान बनाने की सबसे प्राचीन विधि भारत के पास ही थी. विमान का नाम भी भारत के प्राचीन ग्रंथों में मिल जाता है. दुनिया में विमान का पहला लिखित वर्णन भारत में मिलता है. हमारे प्राचीन साहित्य में विमान बनाने की प्रक्रिया दर्ज है. ऋग्वेद में 200 बार विमान शब्द का प्रयोग किया गया है. हमारे प्राचीन मिथकीय कहानियों में भी विमान का उल्लेख मिल जाता है. विमान का हमारे प्राचीन मंदिरों से भी गहरा संबंध रहा है. परग्रही देवताओं के वाहनों को जिसे हमने बाद में मंदिर का नाम दिया है उन मंदिरों के शिखर को हम आज भी विमान कहते हैं. आधुनिक विमान बनाने की पहली प्रक्रिया भी भारत में ही शुरू हुई थी. अंतरिक्ष में उड़ान भरने में भी भारत किसी से कम नहीं है. रॉकेट निर्माण और अंतरिक्ष अनुसंधान में भारत दुनिया का सिरमौर बन कर उभर रहा है. लेकिन भारत में बड़े यात्री विमानों का निर्माण नहीं होता है. क्या भारत में मेधावी इंजीनियरों की कमी है ? क्या भारत में विमान बनाने के संसाधन नहीं हैं ? क्या भारत बड़े यात्री विमान बनाने में सक्षम नहीं है ? तो फिर बड़े यात्री विमान बनाने से भारत को कौन रोक रहा है ? क्या बड़े यात्री विमान उद्योग में कोई अंतर्राष्ट्रीय साजिश चल रही है ? आखिर कौन कर रहा है भारत के खिलाफ षडयंत्र ?
हमारे ऋषि-मुनियों की दी हुई वसुधेवकुटुंबकम् की परिभाषा को चरितार्थ करते हुए आज पूरी दुनिया ग्लोबल विलेज के नाम से जानी जाती है. और इस ग्लोबल विलेज में ना केवल भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है. बल्कि हमारे देश की शिक्षा पद्धति ने ऐसे मेधावी पैदा किए है जो पूरी दुनिया में भारत का डंका बजा रहे हैं. साइंस और टेक्नोलॉजी का क्षेत्र हो या मार्केटिंग और व्यापार का. दुनिया की कोई भी ऐसी बड़ी कंपनी या संस्थान नहीं है जहां कि भारतीय मेधा उच्चपदों पर कार्यरत नहीं है. भारत की इस बौद्धिक क्षमता को देखकर पूरी दुनिया हैरान है.
विकसित होता भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार भी बन गया है. इसी कड़ी में हमारा देश दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रहे विमानन क्षेत्र के लिए भी पहचाना जा रहा है. वर्तमान में हमारे देश में 148 से भी ज्यादा हवाई अड्डे हैं. और हवाई यात्रियों की संख्या के मामले में भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा घरेलू विमानन बाज़ार है. एक रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2023 में हमारे डोमेस्टिक कैरियर्स ने 13 मिलियन यात्रियों को हवाई सफर कराया. जो कि डीजीसीए के अनुसार 2018 और 2019 की तुलना में 11 प्रतिशत अधिक था. नागरिक उड्डयन मंत्रालय के मुताबिक 2024 में भारत में 140 मिलियन से ज्यादा लोगों ने हवाई सफर किया. कोविड महामारी के बाद से घरेलू के साथ साथ अंतर्राष्ट्रीय हवाई यातायात में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है. भारत में कुल 35 अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं. वैसे तो ये 29 हैं लेकिन 5 ज्वाइंट वेंचर के हैं. इस तरह से कुल 35 हैं. देश की राजधानी में इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा सबसे व्यस्त हवाई अड्डा बन गया है.
दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते विमानन क्षेत्र होने के बाद भी हमारे देश के एयरलाइंस, प्रतिस्पर्धा और विमानन उद्योग में जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. और इसका सबसे बड़ा कारण है कि अधिकांश भारतीय एयरलाइंस के पास अपना पूरा बेड़ा उपलब्ध नहीं है. भारत में एयरलाइनर चलाने के लिए किसी भी कंपनी के पास कम से कम 20 एयरक्राफ्ट होना आवश्यक है. जबकि भारतीय कंपनियां विदेश में बनने वाले महंगे एयरक्राफ्ट खरीदकर बाज़ार के कॉम्पीटिशन को नहीं झेल पा रही हैं. ऐसे में वो विदेशों से बड़े विमान पट्टे पर या लीज़ पर लेती हैं और इसके लिए एक बड़ी रकम भी चुकाती हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उड़ान भरने के लिए, भारत के कुल वाणिज्यिक बेड़े का लगभग 80 प्रतिशत विमान पट्टे पर है. इन पट्टों के लिए धनराशि का भुगतान अमेरिकी डॉलर में किया जाता है. भारतीय एयरलाइंस कंपनियां इसके लिए लगभग 10 हज़ार करोड़ का सालाना लीज़ रेंट देती हैं. ये रकम इंडियन एयरलाइंस के कुल राजस्व का लगभग 15 प्रतिशत है. भारत में उड़ने वाले घरेलू विमानों की बात करें या भारत से अंतर्राष्ट्रीय उड़ान में शामिल भारतीय एयरलाइंस कंपनियों के विमानों की बात करें. ये सभी विमान ना केवल विदेशी कंपनियों के बनाए हुए हैं बल्कि 80 प्रतिशत विमानों का स्वामित्व तो भारतीय कंपनियों के पास है ही नहीं. हमारे देश की विमानन कंपनियां किराए के विमानों में यात्रियों को ढोती हैं और अपनी कुल आमदनी का एक बड़ा हिस्सा किराये के रूप में विदेशी कंपनियों को सौंप देती हैं. भारत में हवाई यात्रियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. फिर भला ऐसा क्यों हो रहा है कि हवाई सेवा मुहैया कराने में जुटी ज्यादातर कंपनियों का दीवाला निकल रहा है.
भारत के प्रयास अपर्याप्त क्यों हैं ?
आजादी से पहले 23 दिसंबर 1940 को वालचंद हीराचंद नाम के एक फर्म ने मैसूर साम्राज्य के सहयोग से हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड की शुरूआत की थी. आज इसी कंपनी को हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड या HAL के नाम से जाना जाता है. लेकिन ये सार्वजनिक क्षेत्र की एयरोस्पेस और रक्षा कंपनी है. और इसका वार्षिक कारोबार 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर से ज्यादा है. एचएएल की 40 प्रतिशत से ज्यादा कमाई विमान के इंजन, स्पेयर पार्ट्स और विमान के लिए दूसरे सामान बनाने से होती है और ये सभी कुछ ये कंपनी विदेशी कंपनियों के लिए करती है. इसमें बोइंग, एयरबस और डोर्नियर भी शामिल हैं. इसके अलावा इस कंपनी ने आजादी के बाद से अब तक कई विमान और हेलीकॉप्टर्स विकसित किए. पर तकनीकी खामियों और अधिक लागत के कारण ये असफल रहे. तेजस ही एकमात्र फाइटर प्लेन है जो सफलता की उड़ान भरता दिख रहा है. हांलाकि इसका निर्माण भी अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक की मदद से हो रहा है.
यात्री परिवहन विमानों में एचएएल ने पायलट के अलावा 14 लोगों के बैठ सकने वाला एक छोटा विमान भी विकसित किया है. इसके सफल परीक्षण को देखते हुए वायु सेना ने 15 विमानों का ऑर्डर दिया है. इसके अलावा ट्रेनिंग विमानों में दीपक, सितारा, एचजेटी किरण, टोही विमान और खेती किसानी के काम आने वाले कई विमान बनाए हैं. ये सभी विमान छोटे है और सार्वजनिक परिवहन के उपयोग के लिए तो एकदम अपर्याप्त हैं. इसके अलावा निजी क्षेत्र की बात करें तो गुजरात के वडोदरा में टाटा एयरबेस कंसोर्टियम की आधारशिला रखी गई है. यहां सी-295 विमानों का निर्माण किया जाएगा. लेकिन ये विमान भी भारतीय वायु सेना के लिए सैन्य परिवहन का काम करेगा. मुंबई के पालघर इलाके में भी कैप्टन अमोल यादव को 157 एकड़ ज़मीन दी गई है. वो भी विदेशी मदद से छोटे विमान बनाने की 400 करोड़ की परियोजना पर काम कर रहे हैं. अमोल यादव को सरकार ने तब सहायता की जबकि उन्होंने अपने घर के छत पर ही विमान बनाकर तैयार कर दिया. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में अब तक जो भी प्रयास हुए हैं या हो रहे हैं उनमें से किसी को भी भारत की वर्तमान जरुरत के लिए उपयुक्त नहीं कहा जा सकता है. प्रश्न अब भी बना हुआ है कि आखिर क्यों भारत बड़े यात्री विमान बनाने की प्रक्रिया शुरू नहीं कर रहा है.
भारत दे रहा है विमानों का सबसे बड़ा ऑर्डर
अब आपको बताते हैं कि भारत की विमानन कंपनियां विदेशी कंपनियों को कितना ऑर्डर दे रही हैं. जैसा कि हमने आपको पहले बताया था कि एयरबस यात्री विमान बनाने वाली यूरोप की एक बड़ी कंपनी है. इसका मुख्यालय फ्रांस में है और इसमें ब्रिटेन की भी हिस्सेदारी है. दो साल पहले इंडिगो ने एयरबस कंपनी को 500 नए विमान खरीदने का ऑर्डर दिया था. इंडिगो का ये ऑर्डर अब तक का सबसे बड़ा ऑर्डर है. पहले इंडिगो एयरबस से 830 विमान खरीद चुकी है. जानकारी के मुताबिक इंडिगो के पुराने ऑर्डर की सप्लाई भी अभी बाकी है. इंडिगो को पुराने ऑर्डर से 70 प्लेन मिलने बाकी हैं. आपको बता दें कि इंडिगो के पास एयर इंडिया से दोगुने विमान हैं. एयर इंडिया ने भी बोइंग और एयरबस कंपनियों को 470 विमान का ऑर्डर दिया है. बोइंग यात्री विमान बनाने वाली अमेरिकी कंपनी है. एयर इंडिया के ऑर्डर से यूरोप और अमेरिका गदगद हैं. वर्तमान में एयर इंडिया का संचालन टाटा कंपनी कर रही है. एयर इंडिया ने बोइंग और एयरबस को जो ऑर्डर दिया है उसे दुनिया का सबसे बड़ा ऑर्डर माना जा रहा है. आश्चर्य की बात है कि विदेशी कंपनियों को दिए गए इस बड़े ऑर्डर का उल्लेख गर्व के साथ किया जा रहा है. यहां तक कि एयर इंडिया के ऑर्डर को तो जियोपॉलिटिकल बैलेंस ऑर्डर भी बताया जा रहा है. और कहा जा रहा है कि भारतीय कंपनी एयर इंडिया ने एयरबस और बोइंग को संयुक्त रूप से विमानों का ऑर्डर देकर यूरोप और अमेरिका के साथ गजब का संतुलन बिठाया है. और भी हैरानी की बात तो ये है कि एक तरफ दो बड़ी एयरलाइनर कंपनियां बोइंग और एयरबस को दुनिया का सबसे बड़ा ऑर्डर दे रही हैं. वहीं दूसरी तरफ गो-फस्ट जैसी कई कंपनियां दिवालिया हो रही हैं. स्पाइसजेट जैसी कुछ कंपनियां संघर्ष करती हुई दिखाई देती हैं. ऐसे में अगर ये कहा जाए कि भारत में भी दो ही कंपनियां यात्री विमान परिवहन सेवा पर पूरी तरह एकाधिकार कर लेंगी तो गलत नहीं होगा. और किसी भी उद्योग या व्यवसाय में इस तरह के एकाधिकार को बिल्कुल भी सही नहीं माना जाता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत की दो बड़ी कंपनियां बोइंग और एयरबस जैसी बड़ी कंपनियों के हाथ की कठपुतली बनती जा रही हैं.
चीन की कोशिश पर लगा लगाम
यूरोप और अमेरिका को बात-बात में टक्कर देने वाले चीन ने बड़े यात्री विमान बनाने के मामले में भी यूरोप और अमेरिका का वर्चस्व तोड़ने का भरसक प्रयास किया है. लेकिन इस प्रयास में उसे 15 साल से भी ज्यादा का समय लग गया. पर चीन ने हिम्मत नहीं हारी और अपने देश की एक हजार से ज्यादा कंपनियों की मदद ली जिसमें 3 लाख से ज्यादा कर्मचारी शामिल हुए. इस तरह एयरोस्पेस निर्माता कमर्शियल एयरक्राफ्ट कॉरपोरेशन ऑफ चाइना यानि COMAC का निर्माण किया और 15 साल की कड़ी मेहनत करके आखिरकार उसने बड़ा यात्री विमान C191 को बनाकर दुनिया के सामने पेश कर दिया. इस विमान के ज्यादातर पार्ट्स तो चीन में ही तैयार किए गए हैं, लेकिन इंजन और एवियोनिक्स के लिए उसे पश्चिमी देशों की मदद लेनी ही पड़ी. आखिर चीन जैसे बड़े देश को प्लेन का प्रोटोटाइप तैयार करने और उसे अमली जामा पहनाने में इतना समय क्यों लगा. असल में अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने चीन पर कई प्रतिबंध लगा दिए थे इसके कारण जेट इंजन और कुछ प्रमुख उपकरणों का चीन समय पर आयात नहीं कर सका. मामला यहीं समाप्त नहीं हुआ. इस बड़े यात्री विमान को बनाने की सफलता से फूले नहीं समा रहे चीन की हवा उस समय निकल गई जबकि इसे अंतर्राष्ट्रीय उड़ान की परमिशन नहीं दी गई. इस विमान को बनाने वाली COMAC कंपनी को घरेलू एयरलाइनरों ने 1000 विमान का ऑर्डर तो दे दिया है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये उसी षडयंत्र का शिकार हो रही है जिसके कारण भारत और दूसरे देश भी बड़े विमान बनाने के काम में हाथ डालने से बच रहे हैं. चीन के इस बड़े विमान बनाने से बोइंग और एयरबस जैसी कंपनियों को चुनौती मिल रही है ऐसे में इसे अमेरिकी और यूरोपीय नियामक सर्टिफिकेट से वंचित कर दिया गया है.
कनाडा और ब्राजील भी फंसे चक्रव्यूह में
ब्राजील का एब्रायेर और कनाडा की बॉम्बार्डियर जैसी कई कंपनियां अमेरिकन बोइंग और यूरोपियन एयरबस की इसी तरह की षडयंत्र का शिकार हो चुकी हैं. बॉम्बार्डियर को तो केवल इसी बात के लिए परेशान किया गया कि वो अपने छोटे प्लेन काफी सस्ते कीमत पर बेच रही थी. दरअसल बोइंग कंपनी का अमेरिका की सरकार पर और एयरबस कंपनी का फ्रांस, जर्मनी और इग्लैंड की सरकारों पर पूरा नियंत्रण है. और उन्हें सरकारों का भी पूरा वरदहस्त प्राप्त है. सरकारें किसी भी पार्टी की हों. ये कंपनियां उन सरकारों में शामिल सदस्यों और पार्टियों को इतना फंडिंग करती हैं कि सरकारें इन कंपनियों के अनुसार ही एविएशन की रुल्स एंड रेगुलेशन्स पास करने लगती हैं. अमेरिका में तो पैसे से की जाने वाली इस लॉबिंग को कानूनी मान्यता भी मिली हुई है.
इतना ही नहीं इन दोनों कंपनियों ने मिलकर फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन यानि एफएए और यूरोपियन एविएशन सेफ्टी एजेंसी यानि ईएएसए के नाम से दो ऐसे संगठनों पर अपनी पकड़ बना ली है जो कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्लेन के मानकों का निर्धारण करती हैं. जब भी इन कंपनियों को लगता है कि कोई तीसरी कंपनी इन्हें टक्कर देने की स्थिति में आ सकती है तो ये इन संगठनों की आड़ लेकर उस नई कंपनी के विमान को सुरक्षा नियमों के तहत फेल कर देती हैं. ताकि वो प्लेन अंतर्राष्ट्रीय उड़ान ना भर सके. और ऐसा ही हाल ही में चीन की COMAC के साथ हुआ है. इतना परिश्रम, लगन, समय और पैसा खर्च करके चीन ने जो शानदार C191 प्लेन तैयार किया है वो चीन से बाहर नहीं उड़ सकता. जबकि ऐसा एकदम नहीं है कि एयरबस और बोइंग के विमान दुर्घटनाओं का शिकार नहीं होते या इसमें सफर कर रहे यात्रियों की जान कभी मुसिबत में नहीं पड़ी.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की जा रही बोइंग और एयरबस कंपनी के कुचक्र और षडयंत्र ने दुनिया के तमाम देशों के साथ साथ भारत को भी अपने जाल में फंसा रखा है. जैसे ही किसी देश ने या किसी देश की किसी कंपनी ने ऐसा कोई बड़ा या छोटा पैसेंजर प्लेन बनाया. जिससे इन दोनों कंपनियों को टक्कर मिलने का अंदेशा हो. या इन दोनों कंपनियों के वर्चस्व को चुनौती मिल रही हो. तो ये तरह तरह के नियम कानून बनाकर या तो उस पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने का षडयंत्र करते हैं या फिर उसका अधिग्रहण कर लेने का कुचक्र रचते हैं. यहां तक कि अपनी सरकारों के माध्यम से ये उन देशों के साथ व्यवसायिक और तकनीकी संबंधों को भी खत्म करने का प्रयास कर सकते हैं.
भारत को क्या करना चाहिए
भारत को आवश्यकता है ऐसा एक रास्ता निकाला जाए जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे. क्या हो सकता है वो रास्ता आइए जानते हैं.
भारत की एयर इंडिया और इंडिगो ने एयरबस और बोइंग को प्लेन खरीदने का जो दुनिया का सबसे बड़ा ऑर्डर दिया है. उससे यूरोप के तीन देशों और अमेरिका में 10 लाख नई नौकरियां पैदा हो रही हैं. मजेदार बात तो ये है कि भारत के ऑर्डर को पूरा करने के लिए ये कंपनियां भारत में ही इंजीनियरों की तलाश में जुट गई है. क्योंकि जैसा कि हम आपको पहले बता चुके हैं कि कम लागत और ज्यादा स्किल वाली बौद्धिक क्षमता जो भारत में उपलब्ध है वो दुनिया के किसी भी देश में नहीं है. एयरबस की योजना है कि वो भारत से एक हजार इंजीनियरों की सेवा लेगी. आपको बता दें कि सैलरी डेटा कंपायलर ग्लासडोर की डेटा बताती है कि अमेरिकी कंपनी बोइंग के लिए भारत के 18 हजार इंजीनियर पहले से ही काम कर रहे हैं.
भारतीय इंजीनियरों का विदेशों में जाकर काम करना या विदेशी कंपनी के लिए काम करना. इसे हम प्रतिभा पलायन कहते हैं और इसे रोकने के कागज़ी उपाय भी करते हैं. आप केवल अंदाजा लगाइए कि एयर इंडिया और इंडिगो का ये ऑर्डर यदि किसी भारतीय कंपनी को मिला होता तो 10 लाख नौकरियां यहां पैदा हो सकती थी. एयरबस और बोइंग के वर्चस्व को तोड़ने के लिए हमें लगता है भारत को महाद्वीपीय पहल करनी होगी. और एक ऐसी योजना बनानी होगी जो भले ही थोड़ी लंबी हो लेकिन कारगर परिणाम देने वाली हो.
एशिया के सभी देशों को एकजुट करना होगा.
यूरोप और अमेरिका के जैसे एविएशन रुल्स बनाने होंगे.
एशिया के देशों में बने विमानों को इंटरएशिया उड़ान की मान्यता देनी होगी.
ब्राजील और चीन के समान विमान निर्माण की प्रक्रिया को अपनाना होगा.
फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड की एयरबस की तरह कंपनी बनानी होगी.
दो या तीन देशों की कंपनियों को संयुक्त परियोजना तैयार करना होगा.
चीन की तरह पहले घरेलू विमान सेवाओं के लिए बड़े प्लेन बनाने होंगे.
टेक्नोलॉजी को लेकर पूरी तरह आत्मनिर्भर बनना होगा.
बोइंग और एयरबस को इंटरएशिया टक्कर देकर थोड़ा कमज़ोर करना होगा.
अमेरिका और यूरोप से आशंकित प्रतिबंधों के प्रति सजग रहना होगा.
हमे लगता है कि वर्तमान में भारत ही राजनीतिकरूप से ऐसा देश है जो इन उपायों की पहल कर सकता है. और धीरे-धीरे ही सही बोइंग और एयरबस के वर्चस्व को तोड़ सकता है. बोइंग की कॉमर्शियल मार्केट आउटलुक में पब्लिश रिपोर्ट कहती है कि भारत को 2041 तक 2 हजार 210 नए विमानों की जरूरत होगी. इस लिहाज से भारत विमान बनाने वाली कंपनियों के लिए एक बड़ा मार्केट है. ऐसे में अगर भारत में ही इनका निर्माण होने लगा तो देश के करीब 30 से 40 लाख युवाओं को नौकरियां मिल सकती है.